Sunday, 4 November 2007

प्रकृति का अपमान

समलैंगिकता को अपराध न मानने वाला १२७ वाँ देश बनकर निश्चित ही हमारा देश पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण कर रहा है। संविधान में लिखित धाराओं में नगण्य परिवर्तन कर दिल्ली हाइकोर्ट ने इसे मान्यता प्रदान कर दी है सवाल यह उठता है कि दो पुरूष समलैंगिक तभी हो सकते है जब उनमे से एक परिपूर्ण पुरूष हो और यदि पूर्ण पुरूष सामान लिंग कि तरफ़ आकर्षित होता है तो निश्चित ही यह प्रकृति का अपमान है। हाइकोर्ट द्वारा समलैंगिकता पर दिया गया निर्णय निंदनीय है। यह हिंदू धर्म और संस्कृति का घोर अपमान है। समलैंगिकता एक पाप है, एक मानसिक रोग है। भारतीय संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति को एक चश्मे से देखना पुर्णतः ग़लत है। विश्व के अनेक देशों में समलैंगिकता को चाहे कानूनी मान्यता मिल गई हो परन्तु भारत में इसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। समलैंगिकता लागू हो या नहीं, इस विषय पर जोरदार बहस होनी चाहिए। समलैंगिकता ऐसा भयानक असुर है जिसको पनपने का मौका मिलना ही नही चाहिए। मनुष्य ऐसा जीव है जो आदिकाल से प्रकृति से को धोखा देने कि कोशिश करता आया है परन्तु उसने मुह कि खाई है। मेरे समझ से समलैंगिकता मानसिक कुंठा कि उपज है। आजकल घर में बच्चे घर में अकेले रहते है बच्चे को दादा, दादी, चाचा, मामा आदि का प्यार नही मिल रहा हैवे दिन भर टीवी देखते है और सेक्स के नए नए प्रयोग करते है। इस प्रकार बच्चों का ग़लत पालन पोषण भी इसकी वजह है। जो अप्राकृतिक हो, गन्दा हो और विवाह कि संस्कृति के ख़िलाफ़ हो उसे उचित ठहराने वाले वास्तव में मानसिक कुंठा से ग्रसित है जिन्हें भारतीय सभ्यता का ज़रा सा भी ज्ञान नही है। इश्वर कि सृष्टि समलैंगिकता से नहीं विवाह कि परम्परा से आगे बढती है

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